कुछ बदली बदली सी हूँ मैं
क्या मैं ही हूँ, मैं
क्या मेरी हँसी, मैंने हँसी
या फ़िर दुसरो की हँसी में,मैं हँसी
क्यूँ मेरी समझ बदल गयी
क्यूँ दूजो को समझने के लिए
मैं उन्ही की समझ मैं ढल गयी
हर राह जो मैंने चुनी
क्यूँ वो इधर उधर निकल गयी
अपनी नज़र को कर नज़रंदाज़
क्यूँ मैं दूजो की ही नज़र पे अटक गयी
क्यूँ दुसरो की मानते मानते ....अपनी ही राह भटक गयी....
Monday, September 7, 2009
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